amanatein (Rajpoot)
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काबिज़ मेरे ज़मीर पे यूँ गर्द (धूल) हो गयी है
ज़िन्दगी किसी गरीब की जैसे क़र्ज़ (उधार) हो गयी है,
रिश्तों के ख़ुलूस (अपनापन) को अब क्या कहिये
पत्तों पर जमी जैसे ज़र्द (पत्तों का पीलापन) हो गयी है,
मेरा धर्म तेरा धर्म की इस जंग (युद्ध) में
दुनिया तो जैसे नर्क हो गयी है,
प्यार लुटाया तो भी प्यार को लूटा
हक तो जैसे इसी पे शरअ (शरियत का लागू होना) हो गयी है,
चेहरे पे चेहरा और दिल भी दगाबाज़,
मासूमियत तो जैसे तर्क (गायब, खो जाना) हो गयी है.
मेरे ही दुआरा लिखी गयी इस ग़ज़ल क लिए आप सभी से कमेंट्स अपेक्षित हैं .शुक्रिया
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