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दिखावे के इस दौर में शरियत कोई गारंटी नहीं….

amanatein (Rajpoot)
amanatein (Rajpoot)
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दोस्तों , ये लेख मैंने बीते वर्ष एक आँखों देखी घटना पर लिखा था क्यूंकि कोई भी अखबार मेरे लेख को भला क्यूँ छापेगा इसलिए केवल लिखकर व् संभाल कर रख लिया था ये सोचकर कि भविष्य में काम आएगा. तो आज मौका है मेरे पास मेरा अपना ब्लॉग है जिसके दुआरा मैं सच्चाई से आपको अवगत कराना चाहती हूँ. कृपया ध्यान दीजिये..

.तो आईये चलते हैं उस जगह जहाँ पर अलग अलग धर्म के लोग एक हो जाया करते है.एक धर्म में बांध जाया करते हैं. इस धर्म का नाम है इंसानियत. और जगह का नाम है मंदिर, मस्जिद या कुछ भी कह लें. फिलहाल हम दिल्ली की जामा मस्जिद में हैं.जहाँ पर एक ही इश्वर है एक ही आशीर्वाद है.. हाँ बन्दों के दुःख दर्द अलग- अलग और दुआएं भी अलग- अलग. कुछ के मन में सच्ची श्रद्धा, और कुछ वहां के रखवाले होकर भी दो रुपी चेहरे वाले भक्त या ठेकेदार. हमारे देश भारत की सबसे बड़ी और एक ख़ास बात यही है कि यह एकल धार्मिक देश नहीं बल्कि हर धर्म व् संस्कृति मिली जुली है यहाँ जिसे सभी लोग मन से कुबुलते हैं, तभी तो इस देश में रहते हैं और बेहतरीन उदाहरण यही है कि किसी भी धर्म का व्यक्ति किसी भी मशहूर मस्जिद या मज़ार में जाने से नहीं चुकता. ये तो एक बेहद कड़वा सच है जो गले से उतरते नहीं बनेगा कि अलग अलग संस्कृतियों व् धर्मों के लोगों के एक साथ एक देश में रहन सहन के बावजूद लोगों कि पहचान धर्म से होने लगी है. इसे यूँ समझा जा सकता है कि भारत में कई भारत हैं.धार्मिक पहचान प्राथमिक पहचान है.
एक उदहारण इसी जामा मस्जिद का है जो मेरे ही सामने घटित हुई. हवामहल में बड़ी सुहानी हवा चल रही थी, करीब ६ बजे शाम का वक्त था आगंतुकों कि बेतहाशा भीढ़ थी और सूरज अपनी रौशनी धीमी करता जा रहा था. दिन था जुमा . सामने कि चौड़ी पट्टी पर बेठे ५,६ मुस्लिम व्येक्ती जिनमें से एक या दो जामा मस्जिद के रखवाले होंगे. आपस में बातों में मशगूल हैं मेरे बराबर में १० कदम कि दूरी पर २ युवा लड़के बेठे है जिनमें से एक आजकल का शौक earphone लगाये संगीत सुन रहा है. और दूसरा यूँही बेठा इधर उधर देख रहा है. और अफ़सोस जूते नीचे सपाट रखे हैं. अचानक उन ६ मुस्लिम व्यक्तियों में से मस्जिद के एक केयर taker उठकर दोनों को जोर से इशारे से डांटते हैं और बाहर निकल जाने का इशारा करते हैं. दोनों ही कुछ समझ न समझ कि हालत में एक दुसरे कि शक्ल देखते हैं . अचानक मौलवी जी तमाचे का इशारा करते हुए उन्हें फिर डांटकर निकल जाने का इशारा करते हैं. गुस्से को भांपते ही उनमें से एक खड़ा होकर दूजे को भी चलने का इशारा करता है मगर वेह केवल खड़ा होता है जैसे किसी इन्तिज़ार में हो. अचानक उन ६ व्येक्तियों में से एक आदमी तेज़ी के साथ उनकी तरफ दौड़ता है और करीब आकर चीखता है -तुम्हें आवाज़ नहीं आ रही क्या? ये क्या जूते रखने कि जगह है? हिन्दू हो या मुसलमान? ओह, वही चुभने वाले,दिल को चीर देने वाला सवाल पुछ डाला, वो भी उस पवित्र जगह जहाँ पर उस खुदा के सामने हम सब सिर्फ उसके बन्दे हैं..और हम वहां एक हो जाया करते हैं. तभी एक और युवक सर पर रुमाल बंधे वहां पहुँचता है जो सामने ही मस्जिद में काफी देर से इबादत में व्यस्त था..तीनो ने उनके सवालों के जो भी जवाब दिए हों वह सर झुकाकर आगे बढ़ गये उनकी आँखों व् चेहरे पर शर्मिंदगी साफ़ देखी जा सकती थी. वह व्यक्ति फिर भी चिल्ला कर उन्हें डांट रहे थे- पढ़े लिखे जाहिल हो सेन्स ही नहीं है. कुछ लोगों ने सुन लिया था जो उनको सिर्फ गौर से देख रहे थे जिनमें से कुछ उन युवकों को लानत भेज रहे हों इसमें कोई दो राये नही. इस किस्से से पहले एक दिन पहले का एक किस्सा है जो मेरी आँखों के सामने ही घटित हुआ मेरे साथ मेरी बहिन के कदम भी हवा महल की और बढ़ रहे थे, हमारे आगे एक लम्बी दाढ़ी वाले गोरे चिट्टे बुज़ुर्ग और साथ में एक १० व् ११ वर्षीय उनका बेटा हाथ में पानी की ३ ठंडी बोतलें उठाये , व् दूजे हाथ में चप्पल को कसकर पकडे उनके साथ साथ था. हम हवा महल के एक छोर पर बेठे थे ,हमारे ठीक पीछे यदि नीचे की तरफ झांके तो वहां पर एक छोटा कब्रिस्तान है, जिनमे अवश्य ही जाने माने शैख़ या जमा मस्जिद या मशहूर लोगों की कब्रें होंगी. वेह दाढ़ी वाले साहब उस और बढ़ गये, और बाकायेदा उसी ऊंचाई पर से कब्रिस्तान में वुजू फरमा लिया. सामने बेठे एक मुस्लिम शख्स उन्हें गौर से देख रहे थे जब वेह वुजू कर चुके तो वेह उठकर उनके करीब आये और पूछा आपने वहीँ वुजू करना था? न जाने उन जनाब ने क्या जवाब दिया दुसरे जनाब बड़ी मुहब्बत से उनकी पीठ थपथपाते हुए उन्हें अन्दर की ओर ले गये.. अब समझ में ये नहीं आ रहा था कि गलती किसकी बड़ी थी, व् किसने जानबुझकर की थी? अनजाने में उन युवकों का जूते रखना गलत था या उन समझदार व् शिक्षित बुज़ुर्ग का कब्रिस्तान में वुजू करना? अब तो केवल ये एक और तथ्य सही व् सटीक हो सकता है कि जामा मस्जिद के उन care taker को ही सही व् गलत में फर्क नहीं मालूम? एक तथ्य एकदम स्पष्ट व् आम है कि जितना अधिक धर्म व् शरियत का डंका धर्म के ये ठेकेदार बजाते हैं उतनी ही उनमें इल्म की कमी है.उर्दू ही की एक किताब अमल से ज़िन्दगी बनती है (लेखक फ़कीर सलाहुद्दीन सैफ नक्शबंदी) जो हिंदी में भी translate है में मुस्लिम समाज के रहन सहन पर कटाक्ष करते हुए लिखा है -कि बकोल हम मुस्लिम हैं मगर हालत फिरंगियों वाले. ऐसा ही एक और उदहारण है-जामा मस्जिद में देश विदेश के लोग आते हैं, वहां अंग्रेजों के खुले तन को ढांपने के लिए एक ख़ास derss कोड मस्जिद के मौलवियों ने चला रखा है. यहाँ पर एक बात खटकती है की जब वे पुरे लिबास में होते है तब भी उन्हें शरीर ढांपने के लिए वेह ड्रेस दिया जाता है. जो जबरन पैसे वसूलने के अंदाज़ को ज़ाहिर करता है. दुसरे मस्जिद में और भी मुस्लिम महिलाएं आती हैं जिनमें से कई के पहनावे बेअदबी ज़ाहिर करते हैं, उन पर क्यूँ कोई रोक टोक नहीं? वैसे इस बात का एहतराम तो खुद उन महिलाओं को भी होना चाहिए लेकिन जिस तरह फैशन के इस दौर में क्वालिटी की कोई gaurantee नही वैसे ही दिखावे के इस दौर में शरियत की कोई gaurantee नहीं. और तो और मस्जिद में उस पल बड़ी शर्मिंदगी उठानी पड़ती है महिलाओं को, जब अज़ान होती है और मस्जिद में पुरुष आना शुरू हो जाते हैं, तब वहां के केयर taker महिलाओं को बैल बकरियों की तरह बद तहज़ीबी से खदेड़ते हैं उनके अलफ़ाज़ सुनकर हम ये सोचने पर मजबूर हो जाते हैं की यहाँ आये ही क्यूँ? देखने में बड़े दिखने वाले इन उलेमाओं के कर्म इतने छोटे की समानता तो अपने ही मुस्लिम समाज में नज़र नहीं आती तो फिर दूसरों पर क्यूँ और कैसा इलज़ाम?
और इस भेदभाव पर एक कटीला शेएर याद आता है-
खिरद ने कह भी दिया ला इलाहा तो क्या हासिल,
दिल व् निगाह मुसलमा नहीं तो कुछ भी नहीं….

शेएर से साफ़ ज़ाहिर है ज़बान से कलमा पढ़ लेने से क्या हासिल, जब तक आपकी नज़र व् दिल सभी के लिए एक समान नहीं हो जाते भला वो मुसलमान कहाँ? dua

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