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मुझे कट्टरता पसंद है….

amanatein (Rajpoot)
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कभी कभी मेरे मोबाइल पर मेरे कुछ दोस्त मुझे कुछ इस तरह के msg करते हैं, अमेरिका में ७८६ नाम की एक फिल्म बनी है जिसमे नबी का मजाक बनाया गया है, इस msg को खूब फॉरवर्ड करो और इस फिल्म का विरोध करो. वर्ना क़यामत के दिन अल्लाह तुमसे सवाल करेगा. मैंने जवाब दिया था इस msg को फॉरवर्ड करके तुम इस फिल्म को कैसे रोक सकते हो? और तुम्हे कसे मालूम इस तरह की कोई फिल्म बनी भी है या नही? क्या तुमने फिल्म अपनी आँखों से देखी है? फिर उधर से कोई जवाब आया ही नहीं था. आता भी कैसे क्यूंकि msg करने वाला खुद फिल्म का निर्देशक तो नहीं है न? कुछ दिन पहले एक दुसरे दोस्त ने msg किया, दिल्ली में जो अकबरी मस्जिद निकली है, वेह मुस्लिमों की है, सुप्रीम कोर्ट उसे हमारे हक में कर दे इसके लिए इस msg को एक वोट की तरह इस्तेमाल करते हुए फॉरवर्ड करो. जवाब में मैंने लिखा था- अरे बेवकूफ पहले दुनिया को समझ, दीन तुझे खुद ब खुद समझ आ जायेगा. ये मंदिर, मस्जिद के फासले हमने खुद पैदा किये हैं जिन्हें नापने के लिए सिर्फ कदमो का उठना बाकी है. इस तरह की अफवाहें और बकवास msg कम से कम मुझे मत किया करो. और उधर से भी कोई सवाल या जवाब नही आया. एक दिन मेरे एक और दोस्त ने मुझे msg करके कहा-मुबारक हो..जिस अकबरी मस्जिद का केस चल रहा था वेह कोर्ट ने हमारे हक में दे दी है. पढ़ते ही मुझे हंसी आई थी, और मैंने जवाब में लिखा था क्या फायेदा एक और मस्जिद का जबकि हम पहले से ही मोजूद मस्जिदों में एक वक़्त नमाज़ के लिए जाते हुए भी कतराते हैं. इन मस्जिदों में ही नमाज़ पढने वाले नहीं हैं..दिन ब दिन मस्जिद के नमाजियों की लाइन कम होती जा रही है, तब क्या फायेदा एक और मस्जिद का? इसका जवाब आप को व् मुझे ही देना है इश्वर के दरबार में क्यूंकि गुनेहगार हम खुद हैं. उधर से जवाब आया था मगर कुछ न समझी भरा- आपने ठीक कहा अमानत अगर मुसलमान मस्जिदों में ठीक से नमाज़ पढ़ते तो आज बाबरी मस्जिद हिन्दू के हक में न होती, और ये पढ़कर में सर पीटकर रह गयी, वही ढाक के तीन पात . मैंने लिखा था जो मैं समझाना चाहती थी वेह आप समझे नहीं? उन्होंने लिखा था मैं क्या नहीं समझा अमानत ? इस बार मैंने जवाब नहीं दिया था क्यूंकि कट्टर लोगों को कट्टरता से ही समझाया जा सकता है. वेह भी एकदम खुले मंच पर. इसलिए मैंने ये बहस कभी और के लिए उठा रख दिया. एक बार और मेरे एक दोस्त ने कहा था – हाँ इंसानियत होना पहला धर्म है एक पत्रकार को पहले एक इन्सान होना चाहिए लेकिन उससे पहले भी हम मुसलमान हैं क्यूंकि हमारी नीव हमारा धर्म इस्लाम है. लेकिन मैंने जोर देते हुए कहा था ऐसा कैसे हो सकता है? एक पत्रकार केवल एक पत्रकार होता है उसका काम तो समाज को सही दिशा दिखाना है और ये काम एक इंसान होकर ही किया जा सकता है. कम से कम एक पत्रकार को तो इन धार्मिक झगड़ों में पड़कर इंसानियत का धर्म नहीं खोना चाहिए. मुझे माफ़ करना दोस्त लेकिन मेरी नज़र में पत्रकार सिर्फ एक पत्रकार है. कुछ दिन पहले मेरी किसी बात पर झल्लाते हुए उन्होंने कहा था कि ऐसा करो तुम गैर मुस्लिम हो जाओ. सुनते ही मैं जोर से हंस पड़ी थी और मैंने जवाब दिया था कि इस बात में मुझे यकीन नहीं कि कोई भी कलमा व् श्लोक पढ़कर हिन्दू व् मुस्लिम बन सकता है? उनका जवाब था कि सारा दारोमदार तो नीयतों पर होता है ग़ैर मुस्लिम क्या जाने? तब मैं सोच रही थी फिर तो मेरी नज़र में हिन्दू समाज का बेखबर होना बेहतर है कारन- कम से कम जिस तरह मुस्लिम समाज जात के नाम पर अलग अलग मस्जिदें बनाकर उनमें दुसरे जात वाले किसी मुस्लिम को ही नमाज़ अता करने नहीं देता, एक दुसरे को बरेलवी, देवबंदी, तुगलकी, पठान जैसे (जात) पात के शब्दों से भेदभाव का एहसास कराते हैं, कम से कम ऐसा हिन्दू समाज के लोग तो करते नज़र नही आते? और जब दारोमदार नीयतों पर होता है तब यही नियत डांवाडोल हो गयी और उसने धर्म के नियम पुरे दिल से नहीं निभाए, तब उसे जबरन अपने धर्म में खींच लाने का गुनेहगार कौन होगा ? जब हम जानते हैं की खुदा का फरमान है कि जो जैसा है उसे वैसा ही अपनाओ …किसी को भी बदलकर प्यार मत करो, तब हम इन बातों पर क्यूँ अमल नहीं करते? जब डॉक्टर नाईक t .v . चैनल पर गैर मुस्लिमों को कलमा पढ़ाकर एकदम कह देते हैं कि तुम मुस्लमान हो गये और जब वेह व्यक्ति अपना नाम मुस्लिम रूप में बदलने की इच्छा करता है तब वेह कहते है नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता, नाम चाहे जो हो. तो ठीक इस तरह उनकी यही बात ये भी साबित करती है कि अलग अलग धर्मो से कोई भी फर्क नहीं पड़ता ,धर्म चाहे जो हो? अल्लाह कुरान में फरमाता है कि ए बन्दों – तुम्हारी इबादत का तरीका चाहे जो हो, मैं तुम्हारी प्रार्थना के तरीके को नहीं तुम्हारे दिलों को देखता हूँ . जब खुदा की तरफ से पूर्णतया प्रार्थना करने की छूट दी गयी है तब हम न समझ लोग जो अपने ही धर्म व् नियमों को ठीक से नहीं निभा रहे तो क्यूँ रात दिन इस जोर आज़माइश में लगे रहते हैं कि आओ मुस्लिम बन जाओ? कोई सिर्फ कलमा व् श्लोक पढ़कर कैसे हिन्दू व् मुस्लमान बन सकता है? कलमा तो हम मुस्लिम भी पढ़ते है लेकिन क्या हम मुसलमान है? जबकि कुरान के अनुसार जो ईमान वाले काम करे वही मुस्लमान है. और मुस्लिम वो है जो अल्लाह के हुक्मो को पूरा करे जैसे – सादा जीवन, दिखावा नहीं, सभी के लिए प्रेम, हर किसी के लिए दया, दुश्मनों पर भी रहम लेकिन आज हम मुस्लिमों ने खुद को ही इतना बिगाड़ लिया है कि खुद मैं सच्चा मुस्लमान होने और सुधरने की गुंजाईश तक रख नहीं छोड़ी है और दूसरों को इस्लाम कुबूल करने के लिए उकसाते हैं आखिर क्यूँ? क्या इस्लाम का दाएरा सिर्फ यहीं तक है कि खुद गुनाह करो और दूसरों को उपदेश दो ? क्या इसका दाएरा सिर्फ यहीं तक है कि गुनाह करो, मस्जिद जाकर तोबा कर लो ? फिर गुनाह, फिर तोबा, फिर गुनाह, फिर तोबा! कम से कम ऐसा तो कहीं नहीं फ़रमाया खुदा ने, ये तो खुलेआम मजाक और खिलवाड़ है धर्म के साथ …ऐसा मुसलमान होने से क्या लाभ ? मुस्लिम होने की सीने पर मोहर लगाकर जीवन भर पाप करो और अंत मैं नरक इससे बेहतर तो वह हिन्दू है जिसने जीवन भर पुण्य कर्म किये और अंत में स्वर्ग हासिल किया..हम मुस्लिम ही दिन में न जाने कितनी बार गुनाह करते हैं? भला क्या मुस्लमान खुद खुदा के सारे हुक्मो को पूरा कर रहे है? क्या इस्लाम के सभी नियमों को निभा रहे है? क्या हम इतने पाक साफ़ हैं की किसी को भी आसानी से मुस्लिम बना सकता है?जबकि हम खुद पुरे मुस्लिम नहीं है? जी नहीं जनाब…बिकुल नहीं..अल्लाह फरमाता है – ए ईमान वालों दुनिया में हर कोई मेरा बंदा है, इसलिए सभी को एक द्रष्टि व् प्रेम भावना से देखना. “खुद नबी फरमाते हैं, जो लोग देवी देवताओं की पूजा करते हों,तो तुम उन देवी-देवताओं को गाली मत दो.” एक और जगह नबी फरमाते है की “मुझे इस दुनिया में श्राप के लिए नहीं, दया के लिए भेजा गया है.”
तो निश्चित ही एक हिन्दू भी स्वर्ग का उतना ही भागिदार है जितना की मुस्लिम, बशते उसने जीवन में ईमान वाले काम किया हो.
बरहाल ये झगडे मेरे और मेरे जैसे विचारों वाले लोगों की समझ के एकदम परे हैं . आप और हम तो केवल सभी को एकता में बंधने की शिक्षा ही दे सकते हैं..मुझे तो ये सुनकर व् देखकर आश्चर्य होता है की वास्तव में जो बातें कुरआन में लिखी हैं, धार्मिक पंडित उन बातों को नहीं फेलाते…बल्कि उन बातों का उल्टा लेकिन अपने अर्थ में लिपटाकर पेश करते हैं..जो वास्तव में बताना चाहिए वो तो मुझे कहीं दीखता ही नहीं..केवल किताबों के सिवा. और इन सारी कुरीतियों एवम बेकार नियमों की मैं कट्टर विरोधी हूँ, इन सभी के विरुद्ध मुझे कट्टरता पसंद है. कट्टरता के विरुद्ध कुझे कट्टरता पसंद है. अंत में मेरे दुआर लिखे गए इस शेर को में सभी धर्मों को समर्पित करती हूँ ..-
कौन हिन्दू व् कौन मुस्लमान हो गया,
हर कोई मौत पे अपनी बस मिटटी के नाम हो गया…
शुक्रिया…किसी भी भूल चुक के लिए सदेव क्षमा hooorप्रार्थी हूँ…

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